Tuesday, October 22, 2019

दादा लखमी चंद के बारे में हिंदी में कुछ पक्तियाँ

दादा लखमी चंद के बारे में हिंदी में कुछ पक्तियाँ 

दादा लखमी चंद
दादा लखमी चंद

लखमी चंद का जन्म हरियाणा के सोनीपत जिले के जांटी गाँव में हुआ था। यमुना नदी इस गाँव से कुछ किलोमीटर की दूरी पर हो सकती है, हालाँकि 1900 ई। के आरंभिक दशक के भीतर, गाँव यमुना के तट पर जाना चाहता था। जलकुंड ने वर्तमान में अपनी धाराओं को कुछ किलोमीटर दूर, राज्य की ओर संशोधित किया है। लखमी चंद एक ब्राह्मण थे और उनमें एक लेखक के असाधारण गुण थे। उन्नीस चालीस के दशक और उन्नीस पचास के दशक के दशकों में, वह अपने लोगों के ड्रामा के कारण विख्यात हो गए, जिन्हें "जंग" कहा जाता है।
श्री के.सी. द्वारा लिखित पुस्तक "कवि सूर्य लखमी चंद" के भीतर लख्मी चंद का चित्रण है। शर्मा। लेखक का पहले का काम work avi हरियाणा के कवि सूर्य लखमी चंद ’था जो 1982 में लिखा गया था और इस रचनात्मक कार्य के लिए लेखक को हरियाणा हिंदी साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था।
लोकप्रिय रूप से "दादा लखमी चंद" कहा जाता है, वह सभी उम्र का व्यक्ति था और वह दुर्लभ के दुर्लभतम के बीच पदानुक्रमित था। उत्तर एशियाई राष्ट्र के लोग आम तौर पर और विशेष रूप से हरियाणा, north सा सांग ’की परंपरा, धार्मिक विषयों का वर्णन और सामाजिक गुणों के संचार के लिए उनके योगदान के लिए लगातार उनके ऋणी रहेंगे।
लखमी चंद की कुछ प्रसिद्ध is रागनी ’यहाँ स्कैन की गई हैं।

पंडित लखमी चंद (जन्म: 1903, मृत्यु: 1945) हरियाणवी भाषा के एक प्रसिद्ध कवि व लोक कलाकार थे। हरियाणवी रागनी व सांग में उनके उल्लेखनीय योगदान के कारण उन्हें "सूर्य-कवि" कहा जाता है। उन्हें "हरियाणा का कालिदास" भी कहा जाता है। उनका जन्म [[सोनीपत]] जिले के जाट्टी कलां गाँव में हुआ था तथा मात्र ४२ वर्ष की आयु में ही वे चल बसे। उनके नाम पर साहित्य के क्षेत्र में कई पुरस्कार दिए जाते हैं।

उनके द्वारा रचित कुछ प्रमुख सांग हैं : 

  1. नल-दमयंती
  2. मीराबाई
  3. सत्यवान सावित्री
  4. सेठ तारा चंद
  5. पूरन भगत व शशि लकड़हारा आदि।

उनके सुपुत्र पंडित तुलेराम ने उनकी परंपरा को आगे बढ़ाया। आजकल उनके पौत्र विष्णु उनकी इस परंपरा का हरियाणा, राजस्थान व उत्तर प्रदेश के दूर-दराज के गाँवों तक प्रसार करने हेत प्रयासरत हैं।

Pandit Lakhmi Chand (पंडित लखमी चन्द)

 हरियाणा के सूर्यकवि एवं हरियाणवी भाषा के शेक्सपीयर के रूप में विख्यात पं॰ श्री लखमीचन्द का जन्म सन 1901 में तत्कालीन रोहतक जिले के सोनीपत तहसील मे यमुना नदी के किनारे बसे जांटी नामक गाँव के साधरण गौड़ ब्राह्मण परिवार मे हुआ ।
  पंडित लखमीचंद के पिता पं॰ उमदीराम एक साधारण से किसान थे ,जो अपनी थोड़ी सी जमीन पर कृषि करके समस्त परिवार का पालन - पोषण करते थे । जब लखमीचन्द कुछ बड़े हुए तो उन्हें विद्यालय न भेजकर गोचारण का काम दिया गया । गीत संगीत की लगन उन्हें बचपन से ही थी , अतः अन्य साथी ग्वालों के साथ घूमते –फिरते उनके मुख से सुने हुए टूटे –फूटे गीतों और रागनियों को गुनगुनाकर समय यापन करते थे । आयु बढने के साथ –साथ गीत-संगीत के प्रति उनकी आसक्ति इस कदर बढ़ गई की तात्कालीन लोककला साँग देखने के लिए कई-कई दिन बिना बताए घर से गायब रहते थे । एक बार उस समय के प्रसिद्ध साँगी पं॰ दीपचन्द का साँग देखने के लिए ,तथा दूसरी बार श्री निहाल सिंह का साँग देखने के लिए वे कई दिनों के लिए घर से गायब हो गए । तब बड़ी मुश्किल से उनके घरवाले उन्हें ढूंढकर घर लाए ।
इन्हीं दिनों पं॰ लखमीचन्द के जीवन मे एक नए अध्याय का सूत्रपात हुआ सौभाग्य से तात्कालीन सुप्रसिद्ध लोककवि मानसिंह उनके गाँव में एक विवाहोत्सव पर भजन गाने के लिए आमंत्रित होकर पधारे । कवि मानसिंह की मधुर कंठ-माधुरी ने किशोरायु लखमीचन्द का कुछ ऐसा मन मोहित किया कि प्रथम भेंट मे ही उन्होने श्री मानसिंह को अपना सतगुरु बना लिया और अपनी संगीत-पिपासा को शांत करने के लिए गुरु के साथ चल दिए । लगभग एक साल तक पूरी निष्ठा एवं लगन के गुरु सेवा करके घर लौटे तो वे गायन एवं वादन कि कला के साथ-साथ एक लोक –कवि भी बन चुके थे । कहते हैं कि वैसे तो मानसिंह अपने जमाने के एक साधारण कवि गायक ही थे परंतु शिष्य का लगाव और श्रद्धा इतनी गहरी थी कि गुरु प्रभाव उसी प्रकार फलदायक हुआ जिस प्रकार सीधे-साधे सकुरात का अपने शिष्य प्लूटो पर या श्री रामानन्द का कबीर पर । पं॰ लखमीचन्द का संपूर्ण जीवन गुरुमय रहा । गायन कला के पश्चात अभिनय कला में महारत अर्जित करने हेतु ये कुछ दिनों मेहंदीपुर निवासी श्रीचंद साँगी की साँग मंडली ने भी रहे तथा बाद में विख्यात साँगी सोहन कुंडलवाला के बेड़े मे भी रहे परंतु अपना गुरु श्री मानसिंह को ही स्वीकार किया । कुछ दिनों के बाद लघभग बीस साल कि आयु में पं॰ लखमीचन्द ने अपने गुरूभाई जयलाल उर्फ जैली के साथ मिलकर स्वतंत्र साँग मंडली बना ली और सारे हरियाणा में घूम--घूम कर अपने स्वयं रचित सांगो का प्रचार करने लगे तो कुछ ही दिनों में सफलता और लोकप्रियता के सोपान चढ़ गए तथा सर्वाधिक लोकप्रिय साँगी , सूर्यकवि का दर्जा हासिल कर गए । प्रारम्भ में इनके साँग श्रंगार रस से परिपूरित थे जो बाद में सामजिकता, नैतिक मूल्यों एवं अध्यात्म का चरम एहसास लिए हुए हैं । इस प्रकार इन्होने समाज के हर वर्ग मे अपनी पैठ बनाई जिस कारण आज भी इनकी कई काव्य पंक्तियाँ हरियाणवी समाज में कहावतों कोई भांति प्रयोग कि जाती हैं ।
श्री लखमीचन्द बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे । वे केवल एक लोककवि या लोक कलाकार ही नहीं अपितु एक उदारचेता , दानी ,एवं लोक-कल्याण कि भावना से ओतप्रोत समाज-सुधारक थे । इनकी बुद्धिमत्ता एवं गायन कौशल को देखकर प्रसिद स्वतन्त्रता सेनानी एवं संस्कृत के विद्वान पं॰ टीकाराम(रोहतक निवासी ) ने इनको बहुत दिनों अपने पास ठहराया तथा संस्कृत भाषा एवं वेदों का अध्ययन कराया । श्री लखमीचन्द द्वारा रचित सांगों की संख्या बीस से अधिक है जिनमे प्रमुख हैं – नौटंकी , हूर मेनका ,भक्त पूर्णमल, मीराबाई , सेठ ताराचंद , सत्यवान-सावित्री , शाही लकड़हारा , चीर पर्व (महाभारत ) कृष्ण-जन्म ,राजा भोज – शरणदेय ,नल-दमयंती , राजपूत चापसिंह ,पद्मावत ,भूप पुरंजय आदि । सांगो के अतिरिक्त इन्होने कुछ मुक्तक पदों एवं रागनियों की रचना भी की है जिनमे भक्ति भावना , साधु सेवा ,गऊ सेवा , सामाजिकता , नैतिकता , देशप्रेम , मानवता, दानशीलता आदि भावों की सर्वोतम अभिव्यक्ति है । पं॰ जी की रचनाओं में संगीत एवं कला पक्ष सर्वाधिक रूप से मजबूत होता है । विभिन्न काव्य शिल्प रूप जैसे – अलंकार सौन्दर्य एवं विविधता , छंद –विधान की भिन्नता , भाषा में तुकबंदी एवं नाद सौन्दर्य , मुहावरों एवं लोकोक्तियों का कुशलता पूर्वक प्रयोग ,छंदो की नयी चाल आदि शिल्प एवं भाव गुण इन्हे कविश्रेष्ठ , सूर्यकवि , कविशिरोमणि जैसी उपाधियाँ देने को सार्थक सिद्ध करते हैं ।

हरियाणवी संस्कृति के पुरोधा और लोकनायक पं॰ लखमीचन्द का देहांत सन 1945 में मात्र 44 वर्ष की आयु मे ही हो गया ।

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1 Comments:

At February 23, 2023 at 11:38 PM , Blogger RAHUL SHARMA said...

The pic displayed in this blog is not of LAKHMI CHAND JI.
It belongs to KAVI JAGDISH CHANDRA VATS JI.
So please correct it I know because he was my grandfathers dad.

 

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